अब जब हमने मार्स को कॉलोनाइज़ करने का पक्का इरादा कर लिया है और इलोन मस्क 2026 तक मार्स पर ह्यूमन लैंडिंग कराने के लिए कमर कस चुके हैं (1972 के बाद से मनुष्य ने किसी एक्स्ट्राटेरेस्ट्रायल ऑब्जेक्ट पर क़दम नहीं रखा है) तो यह स्वाभाविक ही है कि हमें क्रिस्टोफ़र नोलन की फ़िल्म ‘इंटरस्टेलर’ की याद आए। यह फ़िल्म वर्ष 2014 में आई थी। आज जब हम 2021 में खड़े हैं तो अचानक ‘इंटरस्टेलर’ पहले से अधिक प्रासंगिक, वास्तविक और कम फ़िक्शनल लगने लगी है।
‘इंटरस्टेलर’ की मूल प्रिमाइस यह है कि धरती अब मनुष्यों के रहने योग्य नहीं रह गई है (“प्लैनेट-अर्थ हमें लम्बे समय से यह मैसेज भेज रहा है कि यहाँ से चले जाओ”- फ़िल्म में नायक जोसेफ़ कूपर का संवाद), लेकिन साल 2020 से पहले तक यह अवधारणा अपनी तमाम संजीदगियों के बावजूद आख़िरकार साइंस-फ़िक्शन का ही विषय थी। साल 2020 ने सबसे पहले हमें बताया कि पृथ्वी पर हमारा जीवन कितना वल्नरेबल है और शायद ‘द सिक्स्थ एक्सटिंक्शन’ पहले ही शुरू हो चुका है (यह भी एक संयोग ही है कि एलिज़ाबेथ कोल्बर्ट की इसी शीर्षक की चर्चित किताब वर्ष 2014 में ‘इंटरस्टेलर’ के साथ ही प्रकाशित हुई थी)। सहसा आउटर-स्पेस में दूसरे विकल्पों पर पहले से अधिक शिद्दत से सोचा जाने लगा है। यह विचार एब्सर्ड लगता है कि कोई भी मनमाना एस्टेरॉइड या घातक वायरस देखते ही देखते धरती से समूची मनुष्य-सभ्यता को समाप्त कर सकता है और मनुष्यों की तमाम उपलब्धियां, जिनमें यूनिवर्स के बारे में उसका नॉलेज सबसे आला शै है, पलक झपकते ही नष्ट हो सकती हैं। अब स्पेस में एक सैटेलाइट-स्टेशन बनाना काफ़ी नहीं लगता, मनुष्यों को लगने लगा है कि हमें स्पेस में एक कॉलोनी बनाना ही होगी और अपनी उत्तरजीविता को धरती के परे तक पहुंचाना होगा।
‘इंटरस्टेलर’ फ़िल्म में यही प्रश्न पूछा जाता है कि धरती के बाहर हम कहां जीवित रह सकते हैं। इसका उत्तर दिया जाता है- हमारे सोलर सिस्टम में तो हरगिज़ नहीं। यह एक ग़लत उत्तर है, क्योंकि मार्स और टाइटन (सैटर्न का सैटेलाइट) को इनहेबिटेबल माना गया है और मून को स्पेस में एक बेस-स्टेशन की तरह इस्तेमाल करने के इरादे भी जताए गए हैं। लेकिन ‘इंटरस्टेलर’ एक साइंस-फ़िक्शन मूवी है और उसके लिए यह ग़लत उत्तर ज़रूरी था, क्योंकि तभी तो वह दूसरे आयामों और दूसरी आकाशगंगाओं की यात्रा कर सकती थी। मज़े की बात है कि इन अर्थों में फ़िल्म का शीर्षक भी त्रुटिपूर्ण है। ‘इंटरस्टेलर’ का अर्थ है- दो सितारों के बीच की यात्रा, एक स्टार-सिस्टम से दूसरे तक आवाजाही। जबकि फ़िल्म में दो आकाशगंगाओं के बीच यात्रा दर्शाई गई है। तब, तकनीकी रूप से, इसका शीर्षक ‘इंटरगैलेक्टिक’ होना चाहिए था (अलबत्ता इंटरस्टेलर एक ज़्यादा ख़ूबसूरत ध्वनि है।)
लेकिन आख़िर कोई एक आकाशगंगा से दूसरी आकाशगंगा तक कैसे जा सकता है। हमारी मिल्की-वे गैलेक्सी से सबसे निकट जो आकाशगंगा है (द एन्ड्रोमेडा), वह 2.5 मिलियन प्रकाश-वर्ष के फ़ासले पर है। यानी रौशनी की रफ़्तार से भी अगर हम चलें तो वहाँ तक पहुँचने में 25 लाख साल लगेंगे। फ़िल्म में इसका जवाब दिया गया है- तब हम प्रकाश से भी तेज़ गति से वहाँ जाएँगे, वर्महोल के ज़रिये। सवाल उठता है, ये वर्महोल कहाँ पर है? जवाब है- सैटर्न के पास। एक और सवाल- वर्महोल स्वयं तो बनता नहीं, तब इसको किसने बनाया? इसका जवाब है- दूसरी दुनिया के उन व्यक्तियों ने, जो पाँच आयामी हैं, जिन्हें हम देख नहीं सकते, लेकिन जो चाहते हैं कि हम उनसे मिलें, जुलें, उनकी दुनिया को समझें, देखें, वहाँ जाकर बसें।
न्यूटन का मानना था कि समय समग्र है और यह बिना रुके एक सीधी रेखा में चलता रहता है। आइंश्टाइन ने इसे बदल दिया। उनकी जनरल रेलेटिविटी की बुनियादी थिसीस यह है कि मैटर और एनर्जी स्पेसटाइम को डिस्टॉर्ट करते हैं, उसमें कर्व और वार्प बनाते हैं, इसलिए समय लचीला है। थ्योरिटिकली, समय को मोड़ा जा सकता है और टाइम-ट्रैवल सम्भव है। साइंस फ़िक्शन लिखने वालों और ऐसे विषयों पर फ़िल्में बनाने वालों के बैठकख़ानों में हम झाँककर देखें तो वहाँ हमें आइंश्टाइन के पोस्टर मिलेंगे। न्यूटन को वो लोग बोरिंग कहकर निरस्त कर देंगे। लेकिन आइंश्टाइन ने फ़िज़िक्स को दिलचस्प बना दिया था। आइंश्टाइन समस्त आधुनिक साइंस-फ़िक्शन का पिता है, वो ना होता तो ‘इंटरस्टेलर’ नहीं बनाई जा सकती थी और इतने लोग वर्महोल्स, इवेंट हॉराइज़ॉन्स, टेसेरैक्ट और ग्रैविटेशनल वेव्ज़ की बातें नहीं कर रहे होते।
‘इंटरस्टेलर’ की कहानी यह है कि साल 2067 चल रहा है और धरती अब मनुष्यों के रहने योग्य नहीं रह गई है। सब तरफ़, किसी दु:स्वप्न की तरह, मनुष्य के कार्बन फ़ुटप्रिंट्स अंकित हैं। तब नासा के लिए अतीत में काम चुका एक फ़ार्मर जोसेफ़ कूपर अंतरिक्ष में रहने योग्य दूसरी जगहों की तलाश के एक मिशन में जुट जाता है। यह निश्चय करने के बाद कि हमारे अपने सोलर सिस्टम में कहीं पर लाइफ़ की गुंजाइश नहीं, यह मिशन सैटर्न के पास दूसरी दुनिया के बाशिंदों द्वारा पोज़िशन किए गए वर्महोल के ज़रिये एक दूसरी गैलेक्सी में प्रवेश कर जाता है। वहाँ पर 12 प्रोब-मिशन भेजे जाते हैं। इनमें से तीन मिशन उत्साहवर्द्धक डेटा भेजते हैं- मिल्नर, एडमंड्स और मैन। मिल्नर का प्लैनेट एक ब्लैकहोल से सटा हुआ है (इस ब्लैकहोल को नाम दिया गया है- गार्जेन्तुआ)। यह एक ओशन-वर्ल्ड है। यहाँ पर रहना मुमकिन नहीं। मैन का प्लैनेट बर्फ़ीला और अमोनिया गैस से भरा है। यह भी निरस्त हो जाता है। लेकिन एडमंड्स के प्लैनेट पर जीवन सम्भव है। नासा का मिशन वहाँ के लिए दो प्लान ले जाता है। प्लान ए- एक ग्रैविटेशनल प्रोपल्शन थ्योरी विकसित करते हुए मनुष्यों को बसाना और प्लान बी- फ्रोज़न एम्ब्रायोज़ के ज़रिये उस प्लैनेट को पॉपुलेट करना।
फ़िल्म अत्यंत लोकप्रिय होने के बावजूद दुरूह है, और भौतिकी के सामान्य-ज्ञान और स्पेस-मिशंस के प्रति हमारी वाक़फ़ियत की मांग करती है। इस फ़िल्म की लोकप्रियता यह भी संकेत करती है कि साइंस फ़िक्शन और हैबिटेबल-प्लैनेट्स में दर्शकों की दिलचस्पी बढ़ रही है, और मैं दावा करता हूँ कि 2020 के डिस्टोपियन-साल के बाद अब यह निरंतर बढ़ती ही रहेगी। क्या आपको पता है, अगले महीने की 18 तारीख़ को जो प्रिज़र्वेरेंस रोवर मार्स पर लैंडिंग करने जा रहा है, वो अपने साथ एक ऐसी युक्ति भी लेकर जा रहा है, जो कार्बन डायऑक्साइड से ऑक्सीजन बना सके? इसे आप 2026 में मार्स पर मनुष्यों की लैंडिंग की पूर्व-तैयारी भी कह सकते हैं। मेहमाने-ख़ुसूसी की आमद से पहले स्टेज को फूलों से सजाया जाता है। इसी तर्ज़ पर मार्स पर आदमज़ात की आमद से पहले वहाँ ऑक्सीजन पैदा की जा रही है।
लेकिन अगर ‘इंटरस्टेलर’ इतने तक ही मेहदूद रहती तो बात ही क्या थी। साइंस-फ़िक्शन तब तक क़ामयाब नहीं होता, जब तक कि उसमें कोई ह्यूमन-कॉन्टैक्स्ट ना हो। ‘इंटरस्टेलर’ में भी एक सजल मानवीय-प्रसंग है : जोसेफ़ कूपर का अपनी बेटी मर्फ़ के प्रति गहरा लगाव। जब वो स्पेस में जाता है, तो यही सोचकर जाता है कि उसे अपनी बेटी के लिए एक नई दुनिया तलाशनी है, जहाँ रहा जा सके। उसके लिए मनुष्यता उसकी बिटिया का एक्सटेंशन है या बिटिया ह्यूमैनिटी का मिनिएचर है। जब कूपर धरती से स्पेस के लिए विदा लेता है, तब बिटिया की उम्र दस वर्ष थी। दो वर्ष उसे सैटर्न के पास मौजूद वर्महोल तक पहुँचने में लगते हैं। समस्या तब शुरू होती है, जब वह मिल्नर के प्लैनेट पर जाता है, जहाँ (ब्लैक होल की क़ुरबत के कारण) टाइम-डाइलेशन इतना सघन हो जाता है कि वहाँ बिताए कोई तीनेक घंटों के दरमियान धरती पर 23 साल बीत जाते हैं। इसके बाद कूपर एडमंड्स के प्लैनेट पर पहुँचने के लिए ब्लैकहोल के ग्रैविटी-असिस्ट (‘स्लिन्गशॉट मनुवर’) का इस्तेमाल करता है और इस फेर में धरती पर और 51 साल ख़र्च हो जाते हैं। कूपर ब्लैकहोल के भीतर सिंगुलैरिटी का अनुभव करता है और एक टेसेरैक्ट के ज़रिये किसी टाइम-ट्रैवलर की तरह अपने अतीत में झाँक आता है, किंतु जब वह आख़िरकार अपनी बिटिया से आमने-सामने मिल पाता है तो पाता है कि उसकी उम्र में भले ही चंद साल जुड़े हैं, किंतु बिटिया अब अस्सी से ऊपर की हो चुकी है और मरणासन्न है। यह एक अत्यंत मार्मिक दृश्य है। जनरल रेलेटिविटी ने ऐसे दृश्यों को फ़ैटसी के बजाय थ्योरिटिकली सम्भव बना दिया है।
आपको पता है, ‘इंटरस्टेलर’ की अंतर्वस्तु कहाँ पर है? वर्महोल में नहीं, ब्लैकहोल में नहीं, सिंगुलैरिटी में भी नहीं। इस फ़िल्म का केंद्रीय-विचार यह है कि ग्रैविटी भले ही स्पेस और टाइम को डिस्टॉर्ट कर देती है, लेकिन मनुष्य की चेतना इस दौरान अक्षुण्ण बनी रहती है। धरती से लाखों प्रकाश-वर्ष की दूरी पर होने के बावजूद कूपर की चेतना में पूर्णतया कंसिस्टेंसी है, वो अब भी अपनी बेटी को प्यार करता है, मन ही मन उसकी याद को संजोए हुए है। ग्रैविटी मानव-चेतना को विरूप नहीं कर पाती। इन अर्थों में वह (फ़िल्म में इसे ‘लव’ कहा गया है, शायद इसलिए क्योंकि यह ‘कॉन्शियसनेस’ की तुलना में एक अधिक लोकप्रिय अवधारणा है) देशातीत और कालातीत है और मनुष्य के भीतर कुछ ऐसा है, जो भौतिकी के नियमों के अधीन नहीं। यह कुछ और क्या है? यह जो भी हो, कदाचित् इसका उद्गम बिग बैंग से नहीं हुआ था, और शायद स्पेसटाइम सिंगुलैरिटी में भी इसका अंत नहीं हो सकेगा!
‘इंटरस्टेलर’ अमेज़ॉन प्राइम पर मौजूद है। मेरा मानना है मेरे पाठकों में से बहुतों ने इसे देख लिया होगा। जिन्होंने नहीं देखा है, उन्हें देख लेना चाहिए- सिनेमा जब आयामों के भीतर वैसी यात्रा करता है तो यह एक रोमांच का क्षण होता है और ऐसे क्षणों में मनुष्य की मेधा उसका मुकुट बन जाती है। आप यह भी कह सकते हैं कि यूनिवर्स में बात करने के उम्दा विषयों की आख़िरकार इतनी भी कमी नहीं है और हम हमेशा एक बेहतर मानसिक ख़ुराक डिज़र्व कर सकते हैं। क्यों नहीं?