क्या किसानों के विरोध प्रदर्शन पर राजनैतिक छाया लोकतन्त्र की नाकामी है ?

farmers protest
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केंद्र सरकार द्वारा लाये तीन कृषि कानूनों के ख़िलाफ़ पंजाब और हरियाणा के किसान लगातार आंदोलनरत है। किसानों ने पिछले एक हफ़्ते से पंजाब व हरियाणा से दिल्ली आने वाले लगभग सभी रास्तों पर अपना डेरा जमा रखा है। इस वजह से दिल्ली पुलिस को रूट डायवर्सन करना पड़ रहा है। दिल्ली की सड़कों पर यातायात रुक सा गया है। सड़कों पर गाड़ियों के लम्बे काफ़िले दिखाई दे रहे हैं। इससे आम दिल्ली वासियों को बड़ी मुश्किल हो रही है। सरकार और किसान की इस लड़ाई पीस रही है दिल्ली की जनता।

आईये इस आंदोलन की समीक्षा करते हैं और जानने की कोशिश करते हैं कि कितना जरुरी है किसानों का यह विरोध प्रदर्शन ? क्या यह प्रदर्शन जेन्युइन है या इसे किसी प्रकार का राजनैतिक प्रोपेगैंडा प्राप्त है ?

लोकतन्त्र

हम जिस व्यवस्था में रहते हैं उसे लोकतन्त्र कहते हैं। लोकतंत्र में जनता को अपना जनप्रतिनिधि चुनने की आज़ादी होती है। जनप्रतिनिधि भी जनता के बीच का ही एक चेहरा होता है। चुने हुए जनप्रतिनिधि पर अपने क्षेत्र की जनता की समस्याएं सुनने एवं उसके समाधान का दायित्व होता है। लोकतन्त्र में कोई भी व्यक्ति चुनाव लड़ सकता है। इसके लिए वह किसी एक राजनितिक पार्टी का सदस्य बन सकता है और पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ सकता है। और यदि वह चाहे तो निर्दलीय भी चुनाव लड़ सकता है। लेकिन यदि हर घर से एक-एक व्यक्ति चुनाव लड़ने लगे तो वोटरों से ज़्यादा प्रत्याशियों की संख्या हो जाएगी। यह एक अकल्पनीय स्तिथि होगी।

मल्टी पार्टी कल्चर

भारत में मल्टी पार्टी कल्चर हैं। यहाँ किसी भी व्यक्ति को अपनी खुद की राजनैतिक पार्टी बनाने की स्वतन्त्रता है जिसके लिए उसे ज़रूरी मापदंडो को पूरा करने की प्रक्रिया से गुजरना होगा। प्रत्येक राजनैतिक पार्टी का एक संगठन होता है। संगठन में बैठे लोग पार्टी के लिए नीतियाँ बनाते हैं। नीतियों के हिसाब से राजनैतिक पार्टियां अपनी विचारधारा का निर्धारण करती हैं। समान विचारधारा में विश्वास रखने वाले लोगों को को पार्टी अपने साथ जोड़ती है। और उनमे से क़ाबिल लोगों को पार्टी का टिकट देती है चुनाव में अपना प्रतिनिधित्व करने के लिए।

पक्ष और विपक्ष

चुनाव के बाद किसी एक पार्टी को पूर्ण बहुमत न मिलने की स्तिथि में दो या इससे ज्यादा पार्टियाँ गठबंधन कर सरकार बनाती हैं। सरकार सम्बन्धित राज्य या देश के लोगों के हितों को ध्यान में रखकर क़ानून बनाती हैं। बनाये गए कानून पर विपक्षी पार्टियों की भी सहमति हो यह जरुरी नहीं है। जब विपक्षी पार्टियाँ लोकसभा या विधानसभा सरकार के किसी कानून या फ़ैसले का विरोध करने के लिए पर्याप्त संख्याबल नहीं जुटा पाती हैं। तब वह अपनी पार्टी से जुड़े लोगों को इसका विरोध करने के लिए सड़क पर उतरने का आव्हन करती हैं। और जनता अपनी पार्टी के समर्थन व सरकार के विरोध में सड़कों पर प्रदर्शन करने लगती है।
किया जाने वाला विरोध ज़्यादातर अहिंसक होता है लेक़िन कुछ अवसरों पर यह विरोध हिंसक रूप अख्तियार कर लेता है। हिंसक प्रदर्शनों को रोकने के लिए सरकार की तरफ से बल प्रयोग किया जाता है। और इससे सरकार और प्रदर्शनकारियों के मध्य टकराव की स्तिथि उत्पन्न हो जाती है।

विपक्षी पार्टियाँ ऐसे मौके के इंतज़ार में रहती हैं। विपक्षी पार्टियों के नेताओं को सरकार को घेरने का मौका मिल जाता है।

महत्वपूर्ण सवाल ?

अब सवाल यह उठता है कि वास्तव में बनाया गया क़ानून जनविरोधी है ? यदि हाँ तो संसद में दो तिहाई बहुमत बहुमत से पास क्यों हुआ ? अर्थात देश के कोने कोने चुनकर आए ज़्यादातर जनप्रतिनिधियों ने क्यों इस क़ानून के पक्ष में अपनी सहमति दी ? क्या इसमें उनकी कोई मज़बूरी थी ? और सबसे जरुरी सवाल कि एक सरकार जिसे जनता ने चुना है वह कोई ऐसा कानून क्यों बनाएगी जिससे जनता का अनहित हो ?

farmer during the protest
farmer during the protest

चलिए इन सारे प्रश्नों के उत्तर खोजते हैं !

इसे एक परिकल्पनात्मक उदाहरण से समझते हैं। मान लीजिये ( suppose ) भारत में चुनी हुयी केंद्र सरकार हिंदी को राष्ट्र भाषा बनाने के लिए संसद में एक बिल लेकर आती है। बिल पर चर्चा के दौरान मुख्य विपक्षी पार्टियाँ इस बिल का विरोध करती है। अब यदि सरकार किसी एक पार्टी की है तो बिल आसानी से पास हो जायेगा। लेकिन यदि सरकार गठबंधन की है जिसमें एक से ज़्यादा पार्टियाँ शामिल हैं तो सारी पार्टियों को विश्वास में लेना होगा।
चलिए अब मान लेते हैं क़ानून भी बन गया। अब कुछ राज्य जहाँ विपक्ष की सरकारें हैं वो इस क़ानून के विरोध में सड़क पर उतर आती हैं। जबकि संविधान के अनुसार उन राज्यों कानून नहीं लागू करने की पूरी आज़ादी है। फिर विरोध किस बात का ? यदि कानून से जनता ख़ुश नहीं तो अगली बार आपको मौका देगी फिर आप यह कानून बदल देना।

लेकिन जनप्रतिनिधियों द्वारा विरोध के लिए सड़क पर उतर रोड जाम करना। यातायात बाधित करना। पब्लिक प्रॉपर्टी को नुकसान पंहुचाना। लोकतन्त्र की अपरिपकव्ता को दर्शाता है। यही लोकतन्त्र की खामियां हैं। इस अत्याधुनिक दुनिया एडवांस्ड टेक्नोलॉजी के समय में राजनैतिक पार्टियाँ विज्ञान के इन चमत्कारों का जमकर दुर्पयोग कर रहीं हैं।

दार्शनिक नज़रिया

किसी भी पदार्थ या व्यवहार को सही व ग़लत साबित करने के लिए तर्क दिए जाते हैं। मसलन आग का सही इस्तेमाल क्या है ? इसका उत्तर बड़ा आसान है आग का अविष्कार अंधेरा दूर करने के लिए ,चराग़ जलाने की आवश्यकता हेतु किया गया। ऐसा ज़्यादातर लोगों का मानना है। लेकिन कुछ ऐसे भी लोग हैं जिनका लिए आग का काम है दूसरों का घर जलाना। अब आग से घर जलाना चाहिए या चराग़ इस यक्ष प्रश्न का उत्तर आप हमें कमेंट कर के बता सकते हैं।

चराग़ जलाना आग का सदुपयोग है वहीं किसी का घर जलाना आग का दुर्पयोग कहलायेगा। दुर्पयोग के डर से यदि आग का अविष्कार नहीं किया गया होता तो आज हमारी दुनिया सूरज ढलने के बाद अँधेरे में डूब जाती। एवं हम लोग अभी भी भोजन को बिना पकाये कच्चा ही खाते।

सिर्फ विरोध करने के लिए विरोध ?

इसी प्रकार जब सरकार जनता के हितों की सुरक्षा के लिए कोई कानून बनाती है तो विपक्ष को उसमें जनता का अनहित दिखाई देता। और विपक्षी पार्टी के संगठन के लोग को जनता के बीच इस बात का प्रचार करते हैं कि सरकार द्वारा बनाया गया कानून जनविरोधी है। और जनता को इसका विरोध करने के लिए उकसाते हैं।
भाई जनता ने तो आपको इसीलिए चुन कर भेजा है की आप उसके हितों की रक्षा करें। और यदि जनता को अपने हितों की रक्षा के लिए खुद सड़क पर उतरना पड़े तो फिर जनता को जनप्रतिनिधियों की क्या जरुरत ?

उपसंहार

यदि सरकार द्वारा बनाए किसी कानून से पूरे देश के लोगों का भला होता है। तब भी विपक्षी पार्टियाँ उस क़ानून में कमी ख़ोज कर उसे जनविरोधी साबित करने की कोशिशें करती हैं। और यदि सरकार कोई जनविरोधी कानून बनाती है तो सरकार में शामिल लोग ही सर्वप्रथम उसका विरोध करेंगे एवं देश की जनता ऐसा कत्तई होने नहीं देगी। यहाँ विपक्ष की भूमिका और ज़्यादा आवश्यक एवं महत्वपूर्ण हो जाती है।

न तो सरकार को कोई ऐसा कानून बनाना चाहिए जो देश की जनता की आकांक्षाओं के खिलाफ हो, और न ही विपक्ष को सिर्फ़ विरोध के लिए सरकार के हर फैसले का विरोध करना चाहिए।

 

 

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