सौरव गांगुली। मतलब दादा। दादा मतलब जीत, जोश , जज़्बा, जुनून , जुझारूपन ,
जो लोग नाइनटीज में पैदा हुए अर्ली 2000 से क्रिकेट देख रहे हैं उनके लिए क्रिकेट में दादा से बड़ा दूसरा कोई हीरो नहीं हो सकता।
हमारे लिए दादा किसी इमोशन से कम नहीं। हमारे लिए दादा एक फाइटर हैं। जिन्होंने देश के नौजवान लड़को की एक नयी टीम तैयार की टीम को लड़ना सिखाया, टीम के अंदर जीत का जज़्बा भरा और विदेशी जमीन पर जीतने की आदत डाली, सामने वाले को उसी की भाषा में ज़वाब देना भारतीय टीम को सौरव गांगुली ने ही सिखाया था।
गॉड ऑफ़ दि ऑफ साइड !
क्रिकेट की दुनिया में सौरव गांगुली को ऑफ़साइड का भगवान माना जाता है। क्रिकेट के विशेषज्ञ कहते हैं कि कवर ड्राइव में में भगवान नंबर भी सौरव गांगुली के बाद आता है। अपने गगनचुंबी छक्कों के लिए मशहूर गांगुली बाएं हाँथ के स्पिनर्स के लिए किसी बुरे सपने से काम नहीं थे।
2000 में टीम का कप्तान बनते ही सौरव ने अफ़्रीका में हुए icc champions trophy 2000 में अपनी टीम को फाइनल तक पहुंचाया। लेकिन फाइनल में वो newzeland का भाग्य नहीं बदल सके।
क्रिकेट के मैदान में दादा !
अपने कैरियर की शुरुआत दादा ने अपने डेब्यू टेस्ट ने शतक लगा कर की थी। वो मैदान था लॉर्ड्स का 2002 में एक बार फिर लॉर्ड्स के इसी ऐतिहासिक मैदान पे दादा ने इतिहास रचा। इंग्लैंड में हुयी नेटवेस्ट ट्रॉफी के फाइनल में इंग्लैंड के 325 रनों के भारीभरकम लक्ष्य के ज़वाब में पारी की शुरुआत करते हुए 40 गेंदों पर 60 रन ताबड़तोड़ की पारी खेलकर टीम के लिए जीत की नींव तैयार की। और फाइनल मैच जीतने के बाद लॉर्ड्स की बॉलकनी से दादा का हवा में टी-शर्ट लहराना क्रिकेट प्रेमियों के जेहन में आज भी जिंदा है। जब भी उस दृश्य को हम दुबारा देखने हैं तो हमारे भीतर एक रोमांच पैदा होता है और हम जोश से भर जाते हैं तथा जज्बाती हो जाते हैं।
इसी वर्ष भारतीय उपमहाद्वीप में हुए icc champions trophy 2002 के ख़िताबी मुकाबले में भारत और श्रीलंका का आमना सामना हुआ। बारिश की वज़ह से मैच दो बार खेला गया और दोनों बार बिना किसी परिणाम के ख़त्म हो गया। भारत और श्रीलंका दोनों को संयुक्त विजेता घोषित कर दिया गया।
एक साल बाद दक्षिण अफ़्रीका में वर्ल्ड कप का आयोजन हुआ, अपने नेतृत्व में दादा ने टीम को फाइनल तक पहुँचाया। लेकिन वो फाइनल और उस मैच का परिणाम दादा और करोड़ो भारतीय क्रिकेटप्रेमियों के लिए किसी बुरे सपने की तरह है। उस दिन तारीख़ थी 31 मार्च . यह तारीख़ भारत के इतिहास में काले अक्षरों में दर्ज़ है। 31 मार्च 1931 को अंग्रेजों द्वारा शहीद-ए-आजम को फाँसी दी गयी थी। इस पुरे टूर्नामेंट में एक बल्लेबाज़ के रूप में दादा ने तीन शतक लगाते हुए कुल 465 रन बनाये।
2003 के बाद टीम इंडिया के कोच जॉन राईट की विदाई हो गई। नए कोच ग्रेग चैपल से दादा का विवाद भी ख़ूब सुर्ख़ियों में रहा है।
राजनीति के मैदान में दादा ?
लेकिन यहाँ हम दादा की चर्चा क्यों कर रहे ? क्यों हम आपको उनके क्रिकेट कैरियर की महत्वपूर्ण बातें बता रहे हैं ?
दरअसल इन दिनों दादा अपनी नई पारी को लेकर सुर्ख़ियों में हैं। ऐसे कयास लगाए जा रहे हैं कि अब दादा बीजेपी की पिच बैटिंग करने जा रहे हैं। उनके सामने है मिशन बंगाल ? मिशन बंगाल के लिए बीजेपी दादा को अपना कप्तान बनाना चाहती है लेकिन इसे लेकर दादा की तरफ़ से अभी भी हाँ का इंतजार है। अब क्या दादा अपनी कवर ड्राइव से दीदी को सत्ता के बाहर पहुँचा पाएंगे ? ये तो आने वाला वक़्त ही बताएगा।
राजनीति का मैदान क्रिकेट से बहुत अलग है। यहाँ दादा के लिए चौके-छक्के लगाना उतना आसान नहीं होगा जितना क्रिकेट में था। क्रिकेट अनिश्चिन्ताओं का खेल है लेकिन क्रिकेट के मैदान में एक निश्चित बाउण्ड्री होती है और एक मैदान में दो टीमें खेलती हैं लेकिन राजनीति के मैदान की सीमा अनिश्चित होती है और यहाँ एक मैदान में एक साथ कई टीमों के खिलाडी अपना अपना खेल दिखते हैं।
बंगाल टाइगर दादा !
स्वामी विवेकानंद, रवीन्द्रनाथ टैगोर, सुभाष चन्द्र बोस की तरह सौरव गांगुली बंगाल की पहचान है। दुनिया उन्हें बंगाल टाइगर के नाम से भी जानती है। बीजेपी को बंगाल में गांगुली की लोकप्रियता का अंदाजा है इसीलिए बीजेपी दादा को बंगाल में अपनी टीम की कमान सौपना चाहती है। या कहें उनकी लोकप्रियता को भुनाना चाहती है। 30 दिसंबर को दादा ने बंगाल के राज्यपाल से मुलाकात की थी। राज्यपाल से दादा की मुलाक़ात के कई मतलब निकले जा रहे हैं। लेकिन कयासों पर से पर्दा उठना अभी बाकी है।
समय के साथ सभी संभावनाओं से पर्दा उठ जायेगा। हम उम्मीद करते हैं कि दादा क्रिकेट की तरह राजनीति में भी अपने तेतृत्व क्षमता का भरपूर सदुपयोग करेंगे और इस नए मैदान में एक सफ़ल खिलाड़ी साबित होंगे।