15 अगस्त 1947 का वह क्षण जब भारत की संसद से लेकर आल इण्डिया रेडियो पर प्रसारित होती उस्ताद बिस्मिल्लाह खान की शहनाई के मधुर स्वर पूरे भारत में गूँज उठे थे। उस्तादों के आंगन से शाही शादियों के पंडालों तक अपने पैर पसारने वाली शहनाई को पूछने वाला आज कोई नहीं है। कभी शहनाई का शाही अंदाज इस कदर परवान चढ़ा था कि बनारस ही नहीं कानपुर के पास एक गांव को ही शहनाई वादकों ने बसा डाला था पर आधुनिकता की इलेक्ट्रॉनिक दुनिया शहनाई की गूँज को बंद करने में लगी है।
कानपुर महानगर का एक ख़ास गावं “मझावन “, ख़ास इसलिए कि यह पूरा गावं शहनाई वादकों का है। पिछले कई दशकों से चौथी और पांचवीं पीढ़ी तक के लोग केवल शहनाई वादन के बल पर अपने परिवार का पेट पाल रहे थे पर वर्तमान में जैसे-जैसे डी जे , डिस्को और कान फाड़ने वाले शोर ने संगीत की शक्ल अख्तियार करता जा रहा है। वैसे-वैसे शहनाई की मीठी आवाज खामोश होती जा रही है।
आज मझावन की हालत ऐसी हैं कि युवा वर्ग अपनी परिपाटी से अलग होता जा रहा है। कारण साफ़ है आज समय बहुत बदल गया है और शहनाई को कोई पूंछता नहीं हैं।
मझावन के ही रहने वाले शहनाई के उस्ताद राशिद अहमद बताते है कि उनके बडे भाई उस्ताद बिस्मिल्लाह खान से शहनाई वादन सीखा था और बाद में उन्होंने अपने बड़े भाई से पर आज ये हुनर उनके किसी काम का नहीं रहा। दर्द यही है कि उनके बच्चे अब दूसरे कामों में ज्यादा दिलचस्पी दिखाते हैं।
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आज जो भी शहनाई वादन बचा भी है तो वो फिल्मों की गीतों की धुन के रूप में सुना जा सकता है पर राग और बंदिशों का वो जादुई सफर आज समाप्त होने की कगार पर है और सांसों पर सधी हुयी शहनाई की साँसे अब उखाड़ने लगीं है।
रिपोर्टर – दिवाकर श्रीवास्तव