मशहूर शायर : कैफ़ी आज़मी
“वो भी सराहने लगे अर्बाब-ए-फ़न के बाद
दाद-ए-सुखन मिली मुझे तर्क-ए-सुखन के बाद
दीवानावार चाँद से आगे निकल गए
ठहरा न दिल कही भी तेरी अंजुमन के बाद
होंठों को सील के देखिये पछताइयेगा आप
कह-कहे जाग उठाते है अक्सर घुटन के बाद
ग़ुरबत की ठंडी छाँव में याद आयी उसकी धुप
कदर-ए-वतन हुयी मुझे तर्क-ए-वतन के बाद
एलान-ए-हक़ खतरा-ए-दार-ओ-रसन तो है
लेकिन सवाल ये है की दार-ओ-रसन के बाद
इंसा के ख्वाहिशों की कोई इंतहा नहीं
दो गज़ जमी भी चाहिए दो गज़ कफ़न के बाद”
कैफ़ी आज़मी ये नाम सुनते ही जेहन में एक जिंदादिल शख्सियत की चित्र उभरता है, जिसकी दुमदार आवाज़ और असरदार व्यक्तित्व ने 20वीं सदी के लगभग सभी नामी-गिरामी बड़े मुशायरों पर राज किया है, और अपने नज़्मों और ग़ज़लों से के माध्यम से सीधे लोगों के दिल में उतर गए, कैफ़ी आज़मी ने अपनी रूमानी नज़्मों और ग़ज़लों में आम आदमी के दुःख और तकलीफ का सजीव चित्रण किया , देश के आखिरी आदमी की आवाज को अपनी कविता का विषय बनाया। और लगभग तीन दशक तक अपने फ़िल्मी नज़्मों के द्वारा लोगों का मनोरंजन किया, आनंदित किया व प्रेरित किया। ।
कैफ़ी के काव्य की अपनी खूबियाँ हैं; भावनाओं की तीव्रता, विशेष रूप से, और समाज के वंचित वर्ग के प्रति सहानुभूति और करुणा की भावना, उनकी कविता की पहचान है।
“ख़ारो-ख़स तो उठें, रास्ता तो चले
मैं अगर थक गया, काफ़िला तो चले
चाँद-सूरज बुजुर्गों के नक़्शे-क़दम
ख़ैर बुझने दो इनको, हवा तो चले
हाकिमे-शहर, ये भी कोई शहर है
मस्जिदें बन्द हैं, मयकदा तो चले”
Kaifi Azmi : Top 3 सदाबहार नज़्में
कैफ़ी आज़मी का पूरा नाम “अथर हुसैन रिज़वी” था. कैफ़ी आज़मी ने साहिर लुधियानवी और मजरूह सुल्तानपुरी के साथ मिलकर भारतीय उर्दू साहित्य को भारतीय सिनेमा तक लाने के लिए अभूतपूर्व योगदान दिया।
कैफ़ी आज़मी का जन्म अविभाजित भारत में, उत्तर प्रदेश में वर्तमान में आजमगढ़ शहर के एक छोटे से गाँव मिजवा में एक शिया मुस्लिम परिवार में हुआ था। कैफ़ी के पिता एक ज़मीदार थे। बचपन से ही कैफ़ी को घर में शेरो शायरी व् अदब का माहौल मिला।
महज 5 साल के उम्र में ही कैफ़ी का दाखिला लखनऊ के एक मदरसे करा दिया गया इसके पीछे का उद्देश्य सिर्फ इतना था कैफ़ी को अरबी भाषा की तालीम मिल जाये ताकि घर में कोई ऐसा शख्स भी हो जो जरुरत पड़ने पर फातिया पढ़ सके। लेकिन कैफ़ी के बगावती तेवरों की पहली झलक यही मिली जब कैफ़ी ने कुछ बच्चो को साथ लेकर मदरसे में व्याप्त अनियमताओं के खिलाफ आंदोलन कर दिया, नतीजतन कैफ़ी को मदरसे से निकाल दिया गया साथ ही साथ देश भर के किसी मदरसे में दाखिला लेने से रोक दिया गया।
ऐसे थे Kaifi Azmi
11 साल की उम्र में, आज़मी ने अपनी पहली ग़ज़ल “इतना तो ज़िन्दगी में कैसी कैसी खल पड़े” लिखी और किसी तरह खुद को एक मुशायरे में आमंत्रित करने में कामयाब रहे। वहाँ उन्होंने एक ग़ज़ल पेश किया, जिसे लोगों ने बहुत सराहा गया।
जब उनके बड़े भाई ने उनके शेरो-शायरी लिखने पर आपत्ति प्रकट किया, तो उनके पिता और उनके क्लर्क ने उनकी काव्य प्रतिभा का परीक्षण करने का फैसला किया। उन्होंने Kaifi को एक दोहे की एक पंक्ति दी और उसे उसी मीटर और कविता में एक ग़ज़ल लिखने के लिए कहा।
आज़मी ने चुनौती स्वीकार की और ग़ज़ल पूरी की। इस विशेष ग़ज़ल को अविभाजित भारत में एक राग बनना था और इसे अमर गज़ल गायिका बेगम अख्तर द्वारा गाया गया था।
“बस इक झिझक है यही हाल-ए-दिल सुनाने में
कि तेरा ज़िक्र भी आयेगा इस फ़साने में“
1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान आज़मी ने फारसी और उर्दू की पढ़ाई छोड़ दी और इसके तुरंत बाद वे पूर्णकालिक मार्क्सवादी बन गए। जब उन्होंने 1943 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता ग्रहण की। इस अवधि के दौरान, लखनऊ के प्रमुख प्रगतिशील लेखकों ने उन पर ध्यान दिया।
वे कैफ़ी के नेतृत्व गुणों से बहुत प्रभावित थे। उन्होंने उन्हें एक नवोदित कवि के रूप में भी देखा और उनके प्रति हर संभव प्रोत्साहन दिया। नतीजतन, आज़मी ने एक कवि के रूप में ख्याति और प्रशंसा प्राप्त करना शुरू कर दिया और प्रगतिशील लेखक के आंदोलन के सदस्य बन गए।
चौबीस वर्ष की आयु में, उन्होंने कानपुर के कपड़ा मिल क्षेत्रों में गतिविधियाँ शुरू कीं। एक पूर्णकालिक कार्यकर्ता के रूप में उन्होंने अपने जीवन के सारे आनंदों को त्याग दिया, हालांकि वे एक जमींदार के पुत्र थे लेकिन सदा जीवन उच्च विचार की अवधारणा से प्रभावित थे।
फिर वे मुंबई चले गए, कार्यकर्ताओं के बीच काम करने लगे और बहुत उत्साह के साथ पार्टी की विचारधारा को जन-जन तक पहुंचाने का काम करने लगे। और साथ ही साथ भारत के विभिन्न हिस्सों में मुशायरों में भाग लेंना भी शुरू कर दिया । बॉम्बे में उन्होंने अली सरदार जाफरी के पार्टी के पेपर, कौमी जंग के लिए लिखित रूप में शामिल किया। 1947 में, उन्होंने एक मुशायरा में भाग लेने के लिए हैदराबाद का दौरा किया। वहां उनकी मुलाकात हुई। शौकत आज़मी नाम की एक महिला से, पहली नज़र में ही उन्हें प्यार हो गया और उन्होंने शादी कर ली। इसी मुशायरे में कैफ़ी ने अपनी मशहूर नज़्म “औरत” पढ़ी थी। बकौल शौकत आज़मी ये नज़्म सुनने के बाद वो मन ही मन कैफ़ी को पसंद करने लगी थीं। कैफ़ी से शादी करने के बाद शौकत ने थिएटर और फिल्मों में काम करना शुरू कर दिया व देखते ही देखते प्रसिद्ध अभिनेत्री बन गईं। कैफ़ी और शौकत के दो बच्चे हैं मशहूर अभनेत्री शबाना आज़मी व सिनेमेटोग्राफर बाबा आज़मी।
“क़द्र अब तक तेरी तारीख़ने जानी ही नहीं
तुझ में शोले भी हैं बस अश्क-फ़िशानी ही नहीं
तू हक़ीक़त भी है दिलचस्प कहानी ही नहीं
तेरी हस्ती भी है इक चीज़ जवानी ही नहीं
अपनी तारीख़ का उनवान बदलना है तुझे
उठ मेरी जान!! मेरे साथ ही चलना है तुझे”
अधिकांश उर्दू कवियों की तरह, कैफ़ी आज़मी ने भी लेखन की शुरुआत एक ग़ज़ल लेखक के रूप में शुरू की अपनी कविता में प्रेम और रोमांस के विषयों दोहराया। हालाँकि, प्रगतिशील लेखक आंदोलन और कम्युनिस्ट पार्टी के साथ उनके जुड़ाव ने उन्हें सामाजिक रूप से जागरूक कवि के रूम में स्थापित किया। अपनी कविताों में, वह जनता के साथ हुए शोषण को उजागर करते है और उनके माध्यम से वह मौजूदा सामाजिक व्यवस्था को समाप्त करके एक न्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था के निर्माण का संदेश देने में सफल होते है।
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बाबरी विध्वंस पर लिखी उनकी ये नज़्म कैफ़ी के व्यक्तित्व को परिभाषित करती है
“राम बन-बास से जब लौट के घर में आए
याद जंगल बहुत आया जो नगर में आए
रक़्स-ए-दीवानगी आँगन में जो देखा होगा
छे दिसम्बर को श्री राम ने सोचा होगा
इतने दीवाने कहाँ से मिरे घर में आए
जगमगाते थे जहाँ राम के क़दमों के निशाँ
प्यार की काहकशाँ लेती थी अंगड़ाई जहाँ
मोड़ नफ़रत के उसी राहगुज़र में आए
धर्म क्या उन का था, क्या ज़ात थी, ये जानता कौन
घर न जलता तो उन्हें रात में पहचानता कौन
घर जलाने को मिरा लोग जो घर में आए
शाकाहारी थे मेरे दोस्त तुम्हारे ख़ंजर
तुम ने बाबर की तरफ़ फेंके थे सारे पत्थर
है मिरे सर की ख़ता, ज़ख़्म जो सर में आए
पाँव सरजू में अभी राम ने धोए भी न थे
कि नज़र आए वहाँ ख़ून के गहरे धब्बे
पाँव धोए बिना सरजू के किनारे से उठे
राम ये कहते हुए अपने द्वारे से उठे
राजधानी की फ़ज़ा आई नहीं रास मुझे
छे दिसम्बर को मिला दूसरा बनबास मुझे”
उनकी कविताएँ उनकी समृद्ध कल्पना के लिए भी उल्लेखनीय हैं और इस संबंध में, उर्दू कविता में उनके योगदान को शायद ही कभी समाप्त किया जा सकता है।
शोर यूँ ही न परिंदों ने मचाया होगा,
कोई जंगल की तरफ़ शहर से आया होगा।
पेड़ के काटने वालों को ये मालूम तो था,
जिस्म जल जाएँगे जब सर पे न साया होगा
आज़मी की कविताओं का पहला संग्रह झंकार 1943 में प्रकाशित हुआ था। उनकी महत्वपूर्ण रचनाएँ, हैं, आखिर-ए-शब, सरमाया, आवारा सजदे, कैफ़ियात, निख गुलिस्तान, इसके अलावा भी उन्होंने उर्दू ब्लिट्ज़ के लिए कई लेख लिखे जो “मेरी आवाज सुनो” नामक शीर्षक में प्रकाशित हुआ था।
फिल्मो में कैफ़ी आज़मी ने एक गीतकार और एक्टर के तौर पर काम करना शुरू किया।
कैफ़ी ने फिल्मो में तब लिखना शुरू किया जब उनकी माली हालत बहुत अच्छी नहीं थी. बच्चों के जन्म के बाद घर चलाने में दिक्कते आ रही थी।
कैफ़ी ने फिल्मो में अपना पहला गीत लिखा फिल्म निर्देशक शहीद लतीफ़ की फिल्म बुज़दिल में जिसका संगीत दिया था मशहूर संगीतकार SD बर्मन जी ने।
फिल्म रिलीज़ हुयी वर्ष 1951 में इसके साथ ही कैफ़ी का फिल्मो में लिखने का सिलसिला भी शुरू हो गया.
इसके बाद कैफ़ी ने कुछ और फिल्मों के लिए गीत लिखे जैसे वर्ष 1956 में रिलीज़ नानूभाई की फिल्म यहूदी की बेटी, वर्ष1957 में परवीन,वर्ष 1958 में मिस पंजाब मेल व ईद का चाँद, लेकिन अब तक उन्हें प्रत्याशित सफलता न मिल सकी थी।
उन्ही दिनों दो मशहूर फिल्म निर्देशक “विमल रॉय” और “ख्वाजा अहमद अब्बास” एक नए तरह की सिनेमा बनाने की शुरुआत की, जिसमे उनको साथ मिला प्रगतिशील लेखक संघ के तीन मशहूर लेखकों का, जो थे साहिर लुधियानवी, जान निशार अख्तर व मजरूह सुल्तानपुरी। आगे चलकर कैफ़ी आज़मी भी इसी प्रगतिशील लेखक संघ का हिस्सा बन गए। इन चारों ने मिलकर हिंदी फ़िल्मी गीतों को एक नयी दिशा, नयी भाषा व् नया कलेवर दिया जो आने वाले कई वर्षों तक गाए और सुने और सराहे जायेंगे।
फिल्मो में कैफ़ी को पहला बड़ा ब्रेक दिया था मशहूर फ़िल्मकार गुरुदत्त ने , गुरुदत्त उन दिनों अपने ड्रीम प्रोजेक्ट ” कागज के फूल” पर काम कर रहे थे, और कैफ़ी का गुरुदत्त साहेब से परिचय कराया साहिर लुधियानवी जी ने। फिल्म तो नहीं चली का लेकिन कैफ़ी के लिखे गीत “वक़्त ने किया क्या हंसी सितम” चल निकला। फिल्म नहीं चलने की वजह से फ़िल्मी दुनिया के लोगलोग कैफ़ी को को मनहूस कहने लगे और कैफ़ी को काम मिलना लगभग बंद हो गया
वर्ष था 1964 मशहूर फ़िल्मकार चेतन आनंद एक फिल्म बना रहे थे जो इंडिया की पहली वॉर मूवी भी थी। फिल्म का नाम था “हक़ीक़त” , इस फिल्म के लिए चेतन आनंद ने कैफ़ी अज़मी से गीत लिखवाये फिल्म का एक गाना बेहद चर्चित हुआ “होकर मजबूर मुझे उसने भुलाया होगा” . इस गीत के बाद कैफ़ी रातों रात स्टार बन गए और तमाम नामचीन फिल्म निर्माता निर्देशकों की पहली पसंद बन गए। इसके बाद फिर कैफ़ी ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। उनके गीत लिखने को जो सिलसिला शुरू हुआ फिर वो तीन दशकों तक बदस्तूर जारी रहा. कुछ महत्वपूर्ण फिल्मे जिनके गीत कैफ़ी साहेब ने लिखे है वो इस तरह से है
कोहरा (1964), अनुपमा (1966), उसकी कहानी (1966), साहत हिंदुस्तानी (1969), शोला और शबनम, परवाना (1971), बावर्ची (1972), पाकीजा (1972), हैन्स्ट ज़ख्म (1973), अर्थ (1982) ) और रजिया सुल्तान (1983)। नौनिहाल (1967) के लिए,
कैफ़ी आज़मी द्वारा लिखे बेहद मशहूर फ़िल्मी गीत
“ये दुनिया ये महफ़िल मेरे काम की नहीं
झुकी झुकी सी नज़र बेकरार है की नहीं
तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो
चलते चलते यु ही कोई मिल गया था
तुम बिन जीवन कैसा जीवन
वक़्त ने किया क्या हंसी सितम
कर चले हम फ़िदा जान ओ तन साथियों”
इसके अल्आवा कैफ़ी साहेब ने चेतन आनद की फिल्म हीर राँझा के लिए कहानी, पटकथा व संवाद लिखे जो अपने आप में एक epic है चूँकि इसके सारे संवाद छंद में है। इसके लिए चेतन आंनद उस समय के कई मशहूर गीतकारों व लेखकों से संपर्क किया लेकिन कोई भी तैयार नहीं हुआ। अंतत तलाश जाकर पूरी हुयी कैफ़ी आज़मी पर।
इसके अलावा 1973 में रिलीज़ हुयी MS sathyu की फिल्म गरम हवा की पटकथा, संवाद व गीत लिखे। जो की भारत और पाकिस्तान के विभाजन पर बनी अब तक की सर्वश्रेष्ठ फिल्म है। वर्ष 1973 में सामाजिक मुद्दों पर फिल्मे बनाने वाले श्याम बेनगेल की फिल्म मंथन के लिए भी कैफ़ी आज़मी ने संवाद लिखे थे।
इतना ही नहीं भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के मरणोपरांत कैफ़ी ने एक नज़्म लिखी थी जिसके बोल कुछ इस तरह से थे ” मेरी आवाज़ सुनो , प्यार के आवाज़ राज़ सुनो” . इसे अपनी सुरमयी आवाज़ से सजाया था मोहम्मद रफ़ी जी ने।
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कैफ़ी आज़मी को भारत सरकार की तरफ से भारतीय उर्दू साहित्य में उनके अतुलनीय योगदान के लिए देश के चौथे सबसे बड़े नागरिक पुरस्कार पद्मश्री से अम्मनित किया गया तथा उनकी कृति “आवारा सज़दे” के लिए उन्हें साहित्य अकादमी सम्मान से नवाज़ा गया। इसके अलावा 1978 में महाराष्ट्र सरकार ने कैफ़ी आज़मी के नाम पर जनेश्वर पुरस्कार दिए जाने की घोषणा की।
जीवन के आखिरी दिनों में कैफ़ी का जुड़ाव अपने गाँव से भी देखा जा सकता है. एक बार वो गाँव आये तो पता चला की गाँव के स्टेशन पर कोई सुपर फ़ास्ट ट्रैन व मेल नहीं खड़ी होती जिससे गाँव के लोगो को दिक्कत होती है. फिर क्या था कैफ़ी साहेब ने मोर्चा खोल दिया और अपनी व्हीलचेयर सहित गाँव के स्टेशन की रेल की पटरियों पर बैठ गए। और तब तक नहीं उठे जब तक उनके गाँव के स्टेशन को जंक्शन का दर्जा नहीं दिया गया। बाद में भारत सरकार और खुद रेल मंत्रालय ने उनके नीम पर एक ट्रेन चलायी जिसका नाम कैफियत एक्सप्रेस है।
आखिरकार 10 मई 2002 लांखो-करोङो दिलों को जीतकर यह कलम का सिपाही मौत से ज़िन्दगी की बाज़ी हार गया। और जाते जाते कह गया कह गया “कर चले हम फ़िदा जान ओ तन साथियों अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों“