मीडिया यानी कि लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ। मीडिया जो सत्ता से प्रश्न करता है। सरकारों पे सवाल उठाता है। वही मीडिया आज ख़ुद सवालों के घेरे में है। मीडिया की विश्वश्नीयता पर प्रश्न चिन्ह लगता दिख रहा है। मीडिया का काम है आम लोगों में मीडिया की विश्वश्नीयता को बरक़रार रखना। लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ को उसकी खोयी हुयी प्रतिष्ठा वापस दिलाना। मीडिया संकल्प है सत्य की ख़ोज ! ग़लत को ग़लत कहने का साहस और उसका पुरजोर विरोध मीडिया की पहचान है। मीडिया का एकमात्र उद्देश्य है जनता और सरकार के मध्य जरुरी एवम आवश्यक संवाद स्थापित करना।
मीडिया का काम है ख़बर को ख़बर के रूप में पेश करना न कि ख़बर को सनसनी बना कर trp कमाना। कहीं न कहीं राजनितिक पार्टियाँ और राज्य सरकारें इस खेल में मीडिया का पूरा साथ देती हैं। जगज़ाहिर है कि लगभग सभी बड़ी राजनितिक पार्टी का एक अपना न्यूज़ चैनल या समाचार पोर्टल होता है जिसमें मुख्यत: पार्टी की विचारधारा को पोषित करने वाले लेख़ व ख़बरें ही छपती हैं। राजनैतिक पार्टियाँ अपने फ़ायदे व नुक़सान के जोड़ घटाने के हिसाब से मीडिया का इस्तेमाल करते हैं। वहीं दूसरी तरफ़ मीडिया हवा देखकर राजनैतिक पार्टियों का समर्थन या विरोध करती हैं।
ध्यान से देखने पर देश का मीडिया तीन धड़ों में बंटा हुआ दिखाई देता है।
मीडिया का एक समूह सरकार के पक्ष में रिपोर्टिंग करता है ऐसे आरोप लगते हैं। कुछ चुनिंदा बड़े न्यूज़ चैनल्स की कवरेज देख कर इस बात की पुस्टि होती है।
मीडिया के दूसरे समूह पर सरकार के ख़िलाफ़ रिपोर्टिंग करने के आरोप लगते हैं। इनके विऱोध का यह आलम होता है कि ये आतंकवादियों को शहीद बताते हैं व देश के जवानों को बर्बर तथा क्रूर कहते हैं।
इन दोनों के अलावा एक तीसरा समूह भी है जो पहले दो समूहों की तुलना में कम प्रसिद्ध है। यह समूह उन छोटे-बड़े न्यूज़ चैनल्स और वेब पोर्टल्स का है जो तटस्थ रहकर तथ्यपरक एवं प्रामाणिक खबरों का प्रसारण करते हैं। दिनों दिन इनकी लोकप्रियता बढ़ रही है। अब देश का जनमानस बड़े और नामी न्यूज़ चैनल्स को छोड़कर इन छोटे और अपेक्षाकृत कम प्रसिद्ध चैनल्स की तरफ़ एक नई उम्मीद और विश्वास को कायम होता देख रहा है।
देश की जनता को मीडिया इतनी नाराज़गी पहले कभी नहीं रही । लेकिन ये तो तस्वीर का एक पहलू है।
बाज़ारवाद व उपभोक्तावाद के बढ़ते प्रभाव ने मीडिया को अपनी जद में ले लिया है। तमाम बड़े मीडिया हाउस अब कॉर्पोरेट इंडस्ट्री का रूप ले चुके हैं। शुद्ध मुनाफ़ा इनकी पहली प्राथमिकता होती है। मुनाफ़ा कमाने के लिए आदर्शों से समझौता करने में इन्हें कोई परहेज़ नहीं है। यही कारण है कि आज ज़्यादातर न्यूज़ चैनल्स में धार्मिक बहसें होती हैं। दंगल, आर पार , हल्ला बोल, महासंग्राम जैसे शीर्षक इन चैनलों के थंबनेल होते हैं। डिबेट्स के दौरान हाथापाई होना आम बात हो गयी है . शिक्षा ,स्वास्थ , रोज़गार जैसे ज़रूरी मुद्दे बहस के केंद्र में ही नहीं हैं। अंतराष्ट्रीय सम्मान प्राप्त एक मशहूर पत्रकार अपने प्राइम टाइम शो में लोगों से टीवी न देखने की अपील करते हैं उसके ठीक अगले ही मिनट में डिश टीवी पर अपने चैनल का नंबर बताते नज़र आते हैं।
संचार क्रांति के इस दौर में सूचनाों का विस्फ़ोट काफ़ी तेज़ी से हो रहा है। इंटरनेट पर हज़ारों की तादात में वेबपोर्टल्स रजिस्टरड हैं। जो ख़बरों से पटे पड़े हैं।
मोबाइल का डाटा ऑन करते ही नोटिफ़िकेशन बरसने लगते हैं। बहुत मुमकिन है की आपका विवेक सूचनाों की बाढ़ में बह जाये और आपकी चेतना डूब कर आत्म हत्या कर ले। लेकिन जिस तरह आत्महत्या एक क़ानूनी अपराध है उसी तरह बिना प्रामाणिकता के ख़बरों पर विश्वाश करना एक नैतिक अपराध है।
जिस तरह एक्सीडेंट के डर से सड़क पर चलना नहीं छोड़ सकते। गंदे होने के डर से कपड़े पहनना नहीं बंद कर सकते ठीक उसी प्रकार नकारात्मक और फेक न्यूज़ की वजह से हम टीवी देखना नहीं छोड़ सकते। कुछ घटिया न्यूज़ चैनल्स और समाचार एजेंसियों के नकारे हो जाने से हम पूरी मीडिया की विश्वश्नीयता पर सवाल नहीं उठा सकते।
अपना घर यदि गंदा है तो उसकी सफ़ाई की ज़िम्मेदारी हमारी है। घर को गंदा बताकर, छोड़कर दूसरे घर में शिफ्ट हो जाना मूर्खता है या बुद्धिमानी ?
क्यूंकि दूसरा घर भी सफ़ाई के आभाव में एक दिन गंदा हो जायेगा फिर आपको तीसरा घर चुनना होगा और इसी तरह आप घर बदलते रहेंगे।
बेहतर है कि आप अपने घर को अपना समझें एवं उसकी सफ़ाई की ज़िम्मेदारी उठायें न कि घर बदलते फिरें।