बायोप्सी से होगा किडनी का इलाज़ आसान

डॉक्टरों का कहना है की क्रोनिक किडनी रोग का कोई सम्पूर्ण इलाज नहीं है और यदि इसका समय पर इलाज न किया जाए तो इसे अंतिम चरण की किडनी खराबी अर्थात्(ई एस आर डी) में परिवर्तित होने में समय नहीं लगता है। डॉक्टरों का कहना है की लंबे चलने वाले किडनी के रोगों में मरीज एकदम सामान्य हो और बीमारी के कोई लक्षण दिखाई ही न दें तो यही अत्यधिक खतरनाक होता है। दुर्भाग्य से किडनी के कई गंभीर रोगों के लक्षण शुरुआत में पता नहीं चलते इसलिए जब भी किडनी रोग की आशंका हो, तुरंत डॉक्टर को दिखाकर शुरुआती तौर पर ही इलाज शुरू कर देने पर इस बीमारी को तेजी से बढ़ने से रोका जा सकता है। लेकिन अब संभव नहीं है। क्योकि प्रत्यारोपण की सफलता भी बता सकती है किडनी बायोप्सी। पीजीआइ में में इंडियन सोसाइटी ऑफ रिनल एंड ट्रांसप्लांट पैथोलॉजी का अधिवेशन किया गया है। जिससे यह पता चल सकता है की बायोप्सी खामोश किडनी का राज बता सकता है।

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किडनी की अंदर की खराबी का पता करने में किडनी बायोप्सी का अहम भूमिका है। यह जानकारी संजय गांधी पीजीआई में इंडियन सोसाइटी ऑफ रिनल एंड ट्रांसप्लांट पैथोलॉजी के वार्षिक अधिवेशन के आयोजक हिस्टोपैथोलाजिस्ट प्रो. मनोज जैन ने दी। उन्होंने कहा की किडनी की खराबी का मुख्य कारण किडनी के छननी में खराबी है जो कई बार सही तरीके से काम नहीं करती है।

मनोज ने बताया कि अदिवेशन में देश विदेश से तीन सौ से अधिक हिस्टोपैथैलाजिस्ट शामिल हुए है। इसमें किडनी की बीमारी पता करने के साथ ही प्रत्यारोपित किडनी की सफलता पता लगाने के लिए भी बायोप्सी में क्या देखना होता है जानकारी दी जा रही है। संस्थान में रोज आठ से दस मरीजों में किडनी बायोप्सी नेफ्रोलाजिस्ट कराते है।

मनोज जैन ने बताया की कई बार किडनी के फिल्टर में सूजन हो जाती है। किडनी का फिल्टर किडनी में बहुत छोटी रक्त वाहिकाओं से बना होता है, जिसे ग्लोमेरुली कहा जाता है। सूजन अचानक शुरू होता है तो यह गंभीर हो सकता है । जब इसकी शुरुआत धीरे-धीरे होती है तो यह क्रोनिक हो सकता है। इसके साथ ही उन्होंने ये भी कहा की किडनी की कई परेशानी ऐसी होती है जिसका पता लगा कर केवल दवा से इलाज संभव है । एफएसजीएस फोकल सेगमेंटल ग्लोमेरुलोस्क्लेरोसिस, एमजीएन मेम्ब्रेनस ग्लोमेरुलोनेफ्राइटिस, एमपीजीएन ,मेम्ब्रेन प्रोलिफरेटिव ग्लोमेरुलोनेफ्राइटिस, आईजीए नेफ्रोपैथी और मेसैंजियोप्रोलिफरेटिव ग्लोमेरुलोनेफ्राइटिस का पता बायोप्सी से ही लगता है।

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