बिहार चुनावों के अंतिम परिणाम आ गये हैं। जैसा कि एक्जिट पोल्स में दिखाया जा रहा था कि इस बार महागठबंधन सरकार बनाने जा रही है। परिणाम इसके ठीक विपरीत आ रहे हैं। कहना गलत न होगा कि एक्जिट पोल एक बार फिर गलत साबित गये ।
बिहार चुनाव पर अमेरिकी असर
अमेरिका में संपन्न हुए हलिया चुनावों में हुए सत्ता परिवर्तन को केन्द्र में रखकर ऐसी हवा बनाई जा रही थी कि बिहार में भी सत्ता परिवर्तन होगा और तेजस्वी इस परिवर्तन का नेतृत्व करेंगे।
लेकिन लोकतंत्र में सबसे अधिक ठगी जाने वाली जनता असल में सबसे ज्यादा ताकतवर होती है । जनता ही लोगों को सिंहासन पर चढ़ाती और उतारती है। बिहार की जनता ने जो निर्णय लिया है उसका सर्वसम्मति से सम्मान होना चाहिए। और हारे हुए दल के नेताओं को ईवीएम पर कतई दोषारोपण करने से बचना चाहिए।
बिहार के प्रमुख मुद्दे
बिहार में सबसे बड़े दो मुद्दे हैं बाढ़ और इसके चलते होने वाला पलायन। बिहार में जब चुनाव आते हैं तो नेता लोग पलायन रोकने के लिए राज्य में ही रोज़गार देने के बड़े बड़े दावे करने लगते हैं तमाम राजनितिक पार्टियाँ घोसणा पत्र में दूसरी पार्टी के मुक़ाबले में ज़्यादा रोज़गार देने आँकड़े छापती है।
और जमीन पर व टिकटों के वितरण के दौरान वही पार्टियाँ सोशल इंजीनियरिंग का फार्मूला अपनाते नज़र आती हैं। टिकटों के बटवारे में जिसे सबसे ज्यादा तवज्जो दी जाती है वो है जाति, धर्म और समुदाय। कमोबेश सभी पार्टियों का यही हाल है। चुनाव ख़त्म होते ही नेताओं के वादे हवा में उड़ जाते हैं। और जनता अपने रोज़मर्रा के कामों में मशगूल हो जाती है।
इस बार बिहार की जनता ने जनप्रतिनिधियों को चुनते समय किन मुद्दों को वरीयता दी आईये जानने की कोशिश करते हैं। साथ ही साथ यह समझने की भी कोशिश करते हैं कि राजनैतिक पार्टियों के किस वादे ने वोटरों को उनकी तरफ आकर्षित किया।
पिछले चुनाव
इसे समझने के लिए हमें पांच साल पीछे जाना होगा दरअसल बिहार में हुये पिछले चुनावों में नितीश कुमार महागठबंधन के अभिन्न अंग थे व बीजेपी कुछ छोटे दलों के साथ मिलकर अकेले दम पर ताल ठोक रही थी। सारी प्रमुख विपक्षी पार्टियाँ बीजेपी के ख़िलाफ़ या यूँ कहे बीजेपी को हराने के लिए साथ मिलकर चुनाव लड़ रही थीं।
नतीजे आये महागठबंधन के पक्ष में, नितीश कुमार मुख्यमंत्री बने और तेजश्वी के खाते में आया उपमुख्यमंत्री का पद।
कुछ ही दिनों में आरोप लगने लगे कि बिहार में सत्ता के दो केंद्र बन गए हैं जो आला अधिकारियों से लेकर बिहार की जनता तक किसी के लिए हितकर नहीं था।
Nitish & Tejashwi
राजद व जदयू के नेताओं व कार्यकर्ताओं में मतभेद खुलकर सामने आने लगे व ज़ल्द ही सार्वजानिक होने लगे।
नितीश जी महागठबंधन से अलग़ हो गये। सरकार अल्पमत में आ गयी। बीजेपी जो की वोट प्रतिशत के मामले में बिहार की सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी थी इसी मौके के इंतज़ार में बैठी थी।
JDU और नितीश कुमार को बीजेपी ने बिना शर्त समर्थन दिया और नितीश कुमार कुर्सी से गिरते-गिरते बच गये।
मौजूदा समीकरण
इस बार बीजेपी और जदयू ने साथ मिलकर चुनाव लड़ा है। लेकिन उनके एक और साथी चिराग़ इस बार अकेले ही रोशनी बिखेर रहे हैं। वैसे तो चिराग़ जी बीजेपी के साथ हैं। लेकिन नितीश का साथ उन्हें पसंद नहीं।
चुनावों के दौरान जहाँ एक ओर नितीश बाबू अपने सुशासन के लिए वोट माँगते नज़र आये तो वहीँ दूसरी ओर तेजश्वी ने बिहार बदलने के लिए लोगों से अपनी पार्टी को वोट देने का आव्हन किया। बात करें बीजेपी की तो उन्होंने सुशांत को न्याय दिलाने के लिए जनता से समर्थन की अपील की।
ताजा आँकड़ों में एनडीए आसानी से बहुमत के पार जाता दिखाई दे रहा है। बीजेपी को सबसे ज्यादा 75 सीटें मिलती नजर आ रही हैं। तो जदयू 50 के भीतर सीमित होती नजर आ रही है। बात करें महागठबंधन की तो सबसे बड़े दल राजद को 66 सीटों मिलती दिख रही हैं। तो वहीं कांग्रेस 18 व सीपीआई 11 सीटों पर बढ़त बनाती नज़र आ रही हैं। हालाँकि कि अंतिम और आख़िरी आँकड़े अभी आने बाकी हैं।
अभी प्राप्त आंकड़ों के अनुसार NDA को 130 एवं महागठबंधन को 105 सीटें पर बढ़त बनाये हुए है।
पिछले चुनाव के आँकड़ों कुछ इस तरह थे
कुलमिलाकर कह सकते हैं जैसा कि शुरूआती परिणामों से स्पष्ट है इस बार के चुनाव में सबसे ज़्यादा फ़ायदा बीजेपी को हुआ है। वहीं दूसरी तरफ़ जदयू और राजद दोनों को पिछली बार की तुलना में 15 से 20 सीटों का नुकसान होता दिख रहा है।
कौन बनेगा मुख्यमंत्री
एक प्रश्न जो सब से ज़्यादा पूंछा जा रहा है वो यह है कि यदि एनडीए को बहुत मिलता है और जैसा की दिख रहा है बीजेपी सबसे ज़्यादा सीटें जीतती है तो उस स्तिथि में क्या बीजेपी नितीश कुमार को ही मुख्यमंत्री के रूप में अपना समर्थन देगी या पार्टी का शीर्ष नेतृत्व पार्टी के ही किसी नये चहरे पे दांव लगाएगा ।
नितीश कुमार 15 साल से बदस्तूर सत्ता में बने हुए हैं। एंटी इनकम्बैंसी होने के बावजूद बीजेपी के साथ चुनाव लड़कर वो सत्ता में वापसी करते हुए दिख रहे हैं।
इसे बिहार की जनता की चतुराई ही कहा जायेगा कि उन्होंने अन्य पार्टियों की तुलना में बीजेपी पर सबसे ज़्यादा विश्वाश दिखाया। जनता भी बखूबी जानती है कि केंद्र सरकार से जुड़े रहने में ही उनका फायदा है। पार्टी कोई भी सत्ता में आए, मुख्यमंत्री कोई भी बने लेकिन फंड के लिए उसे केंद्र पर ही निर्भर रहना है।
2015 का गणित
उसका एक कारण हो सकता है पिछले चुनाव से मिला अनुभव जिसमें एक-दूसरे के धुरविरोधी नेता और बिहार के दो पूर्व मुख्यमंत्री नितीश और लालू साथ आकर एक मंच से बिहार के लोगों से बिहार की अस्मिता और बिहारी के नाम पर वोट मांग रहे थे। 2014 के लोकसभा चुनावों में nda से अलग़ हुए नितीश कुमार उस समय अपनी सेकुलर इमेज चमका रहे थे जिसमें उनको हर उस पार्टी का समर्थन प्राप्त था जो बीजेपी के खिलाफ थी।
बिहार की जनता ने उनकी बातों पर भरोसा दिखते हुए उन्हें वोट भी दिया। लेकिन दोनो बिहारी ज़्यादा दिन तक साथ नहीं रह पाए और अलग़ अलग़ रास्तों पर चले गये। इस बात से बिहार की जनता को गहरा धक्का लगा। दो बिहारियों पर किया गया उनका भरोसा खंडित हो गया। और इस बार बिहार की जनता ने बिहारी की जग़ह बाहरी पर भरोसा करना बेहतर समझा।
सुशांत का मुद्दा
लेकिन बिहार चुनावों के पहले तक सुशांत सिंह राजपूत की मौत का मामले को भी एक बड़ा मुद्दे के तौर पर देखा जा रहा था। बीजेपी ने अपने इलेक्शन कैंपेन में बकायदे सुशांत के पोस्टरों का इस्तेमाल करते हुए जस्टिस फॉर सुशांत के नाम पर भी वोट माँगे। क्या आपको लगता है कि सुशांत के मुद्दे से बिहार चनावों में बीजेपी को किसी प्रकार से कोई फ़ायदा पहुँचा ? आप अपनी राइ हमें कॉमेंट कर के बता सकते हैं।